Thursday, October 23, 2014

अरब संस्कृति के इतिहास में वहाँ की भौगोलिक स्थिति, कबीलों का संगठन, अरबों की जातियाँ, कबीलों के मध्य, वर्षों तक लगातार चलने वाले युद्ध, उनकी आर्थिक, सामाजिक, एवं राजनैतिक स्थितियां, उनके धार्मिक विश्वास, उनकी वीरता और गौरव जैसे अनेक विषय हैं, जिस पर इस पुस्तक में लिखा गया है।
 इस पुस्तक में जातियों, कबीलो, मुख्य स्थानों और व्यवसायिक मार्गों के मानचित्र भी तैयार किये गये हैं क्योंकि इससे कम समय में सरल रूप से ज्ञान प्राप्त होता है ।
            इस में खलाफते राशिदा और उनके कार्यांे का पूर्ण रूप से विवरण किया गया है तथा पांचवां भाग खिलाफते बनी उमय्या और उनके शासकों के कार्यकाल पर आधरित हैं।
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Wednesday, October 22, 2014

मुहर्रमुल-हराम का महीना

मुहर्रमुल-हराम का महीना

मुहर्रमुल-हराम का महीना हिज्री-वर्ष -इस्लामी जन्त्री- का प्रथम महीना तथा उन चार महीनों में से एक है जिन्हें अल्लाह तआला ने हुर्मत व अदब -सम्मान एंव प्रतिष्ठा- वाले महीने घोषित किए हैं। इस महीने से संबंधित जो विशिष्ट कार्य नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है वह इसकी दसवीं तारीख -आशूरा के दिन- रोज़ा रखना है। तथा यहूदियों का विरोध करते हुए आशूरा के दिन के साथ-साथ उसके एक दिन पहले (अर्थात 9 मुहर्रम) या उसके एक दिन बाद (अर्थात 11 मुहर्रम को) भी रोज़ा रखना मुस्तहब (श्रेष्ठ) है। आशूरा का रोज़ा पिछले एक वर्ष के गुनाहों का कफ़्फ़ारा होगा।
रोज़े के अतिरिक्त इस महीने की फज़ीलत या इस में किसी विशिष्ट कार्य के विषय में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कोई भी चीज़ प्रमाणित नहीं है, न तो आप के कथन से न आप के कर्म से, और न ही आप के सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम के कर्म से और न ही उनके बाद ताबईन तथा उनके बाद आने वाले धर्म-शास्त्रियों और इमामों से।
मुहर्रम के महीने से नये वर्ष का आरम्भ होता है, होना तो यह चाहिए कि इस से मुसलमानों में जीवन की नयी लहर दौड़ जाए, कार्य का नया उत्साह और उमंग पैदा हो और शक्ति व स्फूर्ति का नया एहसास जाग उठे।
किन्तु होता क्या है? इस के बिल्कुल विपरीत नाला व शेवन (चीख और रोने-धोने) की भयानक आवाज़ों से वातावरण सोगवार और नौहा व मातम की बैठकों से कार्य-शक्ति नष्ट हो जाती है।
इस महीने की हुर्मत और सम्मान को भंग कर के नये वर्ष का आरम्भ अल्लाह की अवज्ञा, फिस्क़ व फुजूर, पाप, दुराचार और गुनाहों के द्वारा किया जाता है।
आशूरा के दिन रोज़ा रखना तो दूर की बात उस में बिदआत व ख़ुराफात और कुप्रथा एंव कुरीति का वह तूफान उठाया जाता है कि अल्लाह की पनाह।
इस महीने में शीया लोग जो कुछ भी करते हैं, इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि यही उनका धर्म और श्रद्धा है। जबकि यह अत्यन्त स्पष्ट बात है कि जिस प्रकार यह लोग नौहा व मातम की महफिलैं संगठित करते हैं यह सब गढ़ी हुई चीज़ैं हैं और इस्लामी शरीअत के विरूद्ध हैं, इस्लाम तो वास्तव में इन्हीं चीज़ो को मिटाने के लिए आया है।
किन्तु खेद की बात यह है कि अहले सुन्नत कहलाने वाले बहुत से लोग दीन की शिक्षाओं से अनभिज्ञ होने के कारण इस महीने में बहुत से ऐसे काम करते हैं जिन से शीयांे की हमनवाई होती है और उनके असत्य धर्म को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण स्वरूपः
8       हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु की शहादत के घटने को अतिशयोक्ति के साथ और बढ़ा चढ़ा कर बयान करना।
8       इस घटना के उल्लेख में कुछ महान सहाबा को भी लानत करने से न चूकना।
8       10 मुहर्रम को ताजि़या निकालना, उसका सम्मान करना, उसके आगे सिर निहोड़ना, उस से मन्नत मांगना, पानी की सबीलैं लगाना, अपने बच्चों को हरे रंग के कपड़े पहना कर उन्हें हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु का फक़ीर बनाना।
8       ताजि़यों और मातम के जुलूस में बड़े धूम-धाम से भाग लेना।
8       मुहर्रम के महीने को सोग का महीना समझ कर इस में शादियाँ न करना।
यह और इस प्रकार की अन्य चीज़ें सुन्नी लोग भी शीयों की हमनवाई में करते दिखाई देते हैं।
इस में कोई सन्देह नहीं कि यह सारी चीज़ें बिद्अत और पथ-भ्रष्ठता हैं, क्योंकि यह इस्लाम की स्वच्छ और निर्मल शिक्षाओं के अत्यन्त विरूद्ध हैं जो कई शताब्दियों बाद एक बातिल फिकऱ्े के द्वारा अविष्कार की गई हैं, और सुन्नियों के इस्लाम धर्म से अनभिज्ञ और दीन के दुश्मनों की चालों से अचेत होने के कारण उनके घरों में भी घुस आई हैं और वह बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ इन से चिपके हुए हैं, और वह यह समझते हैं कि बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। यदि कोई उन्हें इस पर टोकता और समझाने का प्रयास करता है तो उसे आले-बैत का दुश्मन घोषित कर के अपनी सन्तुष्टि कर लेते हैं।
ऐसी गंभीर स्थिति में प्रयास यह है कि सुन्नी भाईयों की सेवा में मुहर्रमुल-हराम के महीने की असल हक़ीक़त को पेश किया जाए, इस आशा के साथ कि शायद किसी दिल में हमारी बात उतर जाए और वह तौबा कर के सीधे मार्ग पर आ जाए।
़      सामान्यतः इस महीने को लोग हुसैन रजि़यल्लाह अन्हु की शहादत के घटने से जानते हैं जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु के लग भग अर्ध शताब्दी के पश्चात 61 हिज्री में 10 मुहर्रम के दिन घटित हुआ, जबकि इस्लाम धर्म नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन ही में सम्पूर्ण हो चुका था। अतः धार्मिक दृष्टि कोण से इस घटने का कोई महत्व नहीं है, और उनकी शहादत को इस महीने की हुर्मत से जोड़ना बिल्कुल ग़लत है। क्यांेकि किसी की शहादत का मातम और सोग करना, उसकी बरसी और यादगार मनाना इस्लाम में वैध कार्य होता, या उसका कोई धार्मिक महत्व होता - तो इस्लामी इतिहास में इस से भी कहीं बढ़ कर शहादतों के पेश आने वाले महान घटने इस बात के अधिक योग्य थे कि उनका मातम किया जाता और मुसलमान उनकी यादगार मनाते। शहादते हुसैन से पहले इसी महीने की पहली तारीख को दूसरे ख़लीफा अमीरूल-मोमिनीन उमर फारूक़ रजि़यल्लाहु अन्हु की शहादत की घटना घटी। सन् 35 हिज्री में 18 ज़ुल-हिज्जा को तीसरे ख़लीफा अमीरूल-मोमिनीन उसमान ग़नी रजि़यल्लाहु अन्हु बेदर्दी से शहीद कर दिये गये। लेकिन सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम और उनके बाद आने वाले मुसलमानों ने इन में से किसी का मातम और सोग तथा यादगार और बरसी नहीं मनायी। अगर ऐसा करना वैध होता तो मुसलमान इन दोनों शहादतों पर जितना भी मातम करते, वह कम होता। किन्तु इस्लाम में इसकी अनुमति नहीं है, बल्कि इस्लाम ने इस नौहा व मातम को जाहिलियत के काम घोषित किए हैं जिनको इस्लाम मिटाने के लिए ही आया है।
़      हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु की शहादत के कारण शैतान को लोगों को भटकाने और मुसलमानों के बीच फित्ना फैलाने का अवसर प्राप्त हो गया। चुनाँचे कुछ लोग आशूरा के दिन खुशी मनाते हैं जैसा कि नासिबी लोग करते थे जिनका अगुवा हज्जाज बिन यूसुफ अस-सक़्फी था। इसके विपरीत कुछ लोग उनके बारे में ग़ुलू के शिकार हो गये जिनका अगुवा मुख्तार बिन उबैद था। यह लोग आशूरा के दिन नौहा व मातम करते हैं, मुँह पीटते, रोते चिल्लाते, भूखे पियासे रहते हैं, यही नहीं बल्कि पूर्वजों और सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम को गालियाँ देते और उन पर लानत भेजते हैं, और उन निर्दोषों को भी लपेट लेते हैं जिनका शहादत के घटने से निकट या दूर का कोई संबंध नहीं है। शहादत के घटने का उल्लेख इस प्रकार करते हैं गोया कि यह हक़ और बातिल या इस्लाम और कुफ्र की लड़ाई थी!!
यह रवाफिज़ -शियों- की आईडियालोजी है, जिस के ताल में अधिकांश सुन्नी भी सुर मिलाते हुए अपने भाषणों और आलेखों में यह बावर कराते हैं कि इस्लामी इतिहास में हक़ एंव बातिल की यह सब से बड़ी लड़ाई थी! और हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु ने इस्लाम को बचाने के लिए जान की बाज़ी लगा दी!
ये लोग क्या यह नहीं सोचते कि यदि ऐसा ही होता तो उस समय जबकि सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम की एक अच्छी संख्या उपस्थित थी और उनसे शिक्षा प्राप्त ताबईन अधिकाधिक थे, इस लड़ाई में हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु ही अकेले क्यों निकलते? क्या यह सम्भव है कि हक़ एंव बातिल और इस्लाम एंव कुफ्र की लड़ाई हो और सहाबा व ताबईन उस से अलग रहें?!!! बल्कि हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु को भी उस से रोकें?!!!
शीयांे की आईडियालोजी तो यही है कि (अल्लाह की पनाह) सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम काफिर, मुर्तद और मुनाफिक़ थे, वह यही कहें गे कि यह कुफ्र एंव इस्लाम की जंग थी, जिस में एक ओर हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु थे और दूसरी ओर सहाबा समेत यज़ीद और उनके समर्थक, सहाबा व ताबईन इस जंग में मूक दर्शक बने रहे!
किन्तु क्या अहले सुन्नत इस दृष्टि कोण को स्वीकार कर लें गे?
क्या सहाबा नऊज़ो-बिल्लाह बेग़ैरत थे? उन में दीन को बचाने का उत्साह नहीं था?
निःसन्देह कोई अहले-सुन्नत सहाबा के विषय में यह दृष्टि नहीं रखता, किन्तु यह बड़ा ही कड़वा सच्च है कि अहले सुन्नत शहादते हुसैन का फल्सफा बयान करने में शीयों का ही विशेष राग अलापते हैं।
वास्तविकता यह है कि कर्बला के घटने को हक़ एंव बातिल की लड़ाई बावर कराने से उन सम्मानित सहाबा के व्यक्तित्व पर धब्बा लगता है जिन्हों ने अल्लाह की बात को सर्वोच्च करने के लिए आजीवन संघर्ष किया और जिनकी तलवारें बातिल को मिटाने के लिए सदैव नंगी रहती थीं।
दरअसल यह मुठभेड़ एक राजनीतिक रूप का था जिसे धार्मिक रंग में रंग दिया गया है, इस को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ग़ौर करेंः
1.  कर्बला के घटना से संबंधित सभी इतिहासों में उल्लिखित है कि हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु कूफा की ओर रवाना होने लगे तो उनके संबंधियों और शुभ चिंतकों ने उन्हें रोकने का पूरा प्रयास किया और इस इक़दाम के भयानक परिणाम से सावधान किया। उन में अब्दुल्लाह बिन उमर, अबू सईद ख़ुद्री, अबुद्-दर्दा, अबू वाकि़द अल-लैसी, जाबिर बिन अब्दुल्लाह, अब्दुल्लाह बिन अब्बास और हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हुम के भाई मुहम्मद बिन अल-हनफिय्यह प्रमुख हैं। फिर भी आप न रूके और न आप के कूफा जाने के संकल्प में कुछ बदलाव ही आया। इस पर अब्दुल्लाह बिन अब्बास रजि़यल्लाहु अन्हुमा ने समझाते हुए कहाः ‘‘यदि आप को अवश्य ही जाना है तो अपने बच्चों और अपनी स्त्रियों को मत ले जायें, इसलिए कि अल्लाह की क़सम! मुझे भय है कि आप उसी प्रकार क़त्ल न कर दिए जाएं जैसे उसमान रजि़यल्लाहु अन्हु क़त्ल कर दिए गए और उनकी स्त्रियाँ और उनके बच्चे उन को देखते ही रह गए।’’
दरअसल हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु के सामने यह बात थी कि कूफा वाले उन को निरंतर कूफा आने का निमन्त्रण दे रहे हैं, अतः वहाँ जाना लाभदायक ही रहे गा।
2. यह भी सभी इतिहासों में आता है कि अभी आप रास्ते ही में थे कि आप को सूचना मिली कि कूफा में आप के चचेरे भाई मुस्लिम बिन अक़ील शहीद कर दिये गए जिन को आप ने कूफा के हालात की जानकारी करने के लिए ही भेजा था। इस खेदजनक सूचना से आप का कूफा वालों पर से भरोसा उठ गया और आप ने वापसी की इच्छा प्रकट की, किन्तु मुस्लिम बिन अक़ील के भाईयों ने यह कह कर वापस होने से इन्कार कर दिया कि हम तो अपने भाई मुस्लिम का बदला लें गे या स्वयं भी मर जाएं गे। इस पर हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु ने कहाः ‘‘मैं भी तुम्हारे बिना जी कर क्या करूँगा?’’
इस प्रकार यह कारवाँ कूफा की ओर चलता रहा।
3.  फिर इस पर भी सभी इतिहास एक मत हैं कि हुसैन रजि़यल्लहु अन्हु जब कर्बला के स्थान पर पहुँचे तो कूफा के गवर्नर इब्ने जि़याद ने उमर बिन सअद को बाध्य कर के आप का सामना करने के लिए भेजा। उमर बिन सअद ने आप की सेवा में उपस्थित हो कर आप से बात चीत की तो अनेक इतिहासिक रिवायतों के अनुसार हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु ने उनके सामने यह प्रस्ताव रखेः
‘‘मेरी तीन बातों में से एक बात मान लो; मैं या तो किसी इस्लामी सीमा पर चला जाता हूँ, या मदीना वापस लौट जाता हूँ, या फिर मैं (स्वयं जा कर) यज़ीद बिन मुआविया के हाथ में अपना हाथ दे देता हूँ (अर्थात मैं उन से बैअत कर लेता हूँ)। उमर बिन सअद ने उनका यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।’’ (देखियेः अल-इसाबह)
इब्ने सअद ने स्वयं स्वीकार करने के बाद यह प्रस्ताव इब्ने जियाद को लिख कर भेजा, किन्तु उसने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और इस बात पर अटल रहा कि पहले वह (यज़ीद के लिए) मेरे हाथ पर बैअत करें।
हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु इसके लिए तैयार नहीं हुए और उनके स्वाभिमान ने इसे स्वीकार नहीं किया, चुनांचे इस शर्त को ठुकरा दिया जिस पर लड़ाई छिड़ गई और आप की मज़लूमाना शहादत की यह दुःख प्रद घटना घट गयी।
इन इतिहासिक शहादतों से ज्ञात हुआ कि यदि यह हक़ एंव बातिल की लड़ाई होती तो कूफा के निकट पहुँच कर जब आप को मुस्लिम बिन अक़ील की मज़लूमाना शहादत की सूचना मिली थी तो आप वापसी की इच्छा प्रकट न करते। स्पष्ट बात है कि हक़ के रास्ते में किसी की शहादत से हक़ को स्थापित करने और बातिल को मिटाने का कर्तव्य समाप्त नही हो जाता।
तथा संधि की उन शर्तों से जो हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु ने उमर बिन सअद के सामने रखीं, यह बात बिल्कुल स्पष्ट होकर सामने आ जाती है कि आप के मस्तिष्क में कुछ बाते रहीं भी हों तो आप ने उन्हें परित्याग कर दिया था। बल्कि यज़ीद की सत्ता तक को स्वीकार करने पर तत्परता प्रकट कर दी थी।
अ  इस से यह भी स्प्ष्ट हुआ कि हुसैन रजि़यल्लहु अन्हु, यज़ीद को बदकार या राज्य का अयोग्य नहीं समझते थे। अगर ऐसा होता तो वह किसी स्थिति में भी अपना हाथ उस के हाथ में देने के लिए तैयार न होते। बल्कि यज़ीद के पास जाने की इच्छा से यह भी प्रत्यक्ष होता है कि आप को उस से अच्छे व्यवहार की आशा थी। अत्याचार बादशाह के पास जाने की इच्छा कोई नहीं करता।
अ इस से इस दुर्घटना के जि़म्मेदार भी वस्त्रहीन हो जाते है और वह है इब्ने जि़याद की फौज जिस में सब वही कूफी थे जिन्हों ने आप को पत्र लिख कर बुलाया था, उन्हीं कूफियों ने इब्ने सअद की संधि के प्रयासांे को असफल बना दिया जिसके परिणाम स्वरूप कर्बला में यह दुःख दायी घटना पेश आया।
जब वास्तविकता यह है कि यह घटना राजनीतिक रूप का है, हक़ व बातिल की लड़ाई नहीं है, तो श्रेष्ठ है कि मुहर्रम के दिनों में इसे वार्ता लाप का शीर्षक न बनाया जाए, इस से शीयों को प्रोत्साहन मिलता है।
़      जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है कि मुहर्रम के महीने में शिया लोग जो हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु का नौहा व मातम आदि करते हैं वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम और ताबईन रहिमहुमुल्लाह के सर्वश्रेष्ठ ज़माने के एक लम्बे समय बाद अविष्कार किया गया है। उचित होगा कि सारांश में उसकी पृष्ठि भूमि पर भी प्रकाश डाल दिया जाए ताकि सुन्नी भाईयों के समाने वास्तविकता स्पष्ट हो जाए।
इस कुप्रथा और बिदअत के अविष्कारक बनी बुवैह हैं, यह लोग कट्टर पन्थी शीया थे। जब यह लोग बग़दाद में प्रवेश किये तो उस समय अब्बासी खिलाफत पतन से पीडि़त थी। इन्हों ने शीघ्र ही ख़लीफा पर प्रभुत्ता प्राप्त कर लिया और उसकी शक्ति को समाप्त करके स्वयं हर चीज़ के कत्र्ता धर्ता बन गए। कुछ दिनों तक तो ये लोग चुप रहे, फिर धीरे-धीरे इनका तअस्सुब प्रकट होने लगा। चुनांचे इन्हांेने बग़दाद में अपने शीई धर्म का प्रसार आरम्भ कर दिया। 351 हिज्री में मुइज़्ज़ुद्-दौलह ने बग़्दाद की जामा मस्जिद केे फाटक पर यह इबारत लिखवा दीः
‘‘मुआविया बिन अबू सुफ्यान पर अल्लाह की लानत हो, फातिमा से फदक को ग़सब करने वाले (अर्थात अबू बक्र रजि़यल्लाहु अन्हु), अब्बास रजि़यल्लाहु अन्हु को शूरा से निकाल देने वाले (अर्थात उमर रजि़यल्लाहु अन्हु), अबू ज़र को जिला वतन कर देने वाले (अर्थात उसमान रजि़यल्लाहु अन्हु) तथा हसन रजि़यल्लाहु अन्हु को उनके नाना के पास दफनाने से रोकने वाले (अर्थात मर्वान बिन हकम) पर अल्लाह की लानत हो।’’
अब्बासी ख़लीफा में इस बिदअत को रोकने की शक्ति नहीं थी। रात को किसी सुन्नी ने इस को मिटा दिया। मुइज़्ज़ुद्-दौलह ने दुबारा लिखवाना चाहा, किन्तु उस के वज़ीर ने परामर्श दिया कि केवल मुआविया के नाम को स्पष्ट किया जाए और उनके नाम के बाद ‘‘आले मुहम्मद पर अत्याचार करने वालों’’ का वाक्य बढ़ा दिया जाए। उसने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया।
अगले वर्ष (352 हि.)10 मुहर्रम को मुइज़्ज़ुद्-दौलह ने आदेश जारी किया कि बाज़ार बन्द रखे जाएं, लोग विशेष वस्त्र पहन कर तथा औरतैं चेहरा खोल कर, बाले बिखेरे हुए, चेहरा पीटते हुए और सीना कोबी करते हुए निकलें और हुसैन बिन अली का नौहा व मातम करें। सुन्नियांे के लिए यह बहुत कठिन अवसर था, किन्तु शीयों की संख्या अधिक होने के कारण सुन्नी इसे रोक न सके।
मुइज़्ज़ुद्-दौलह ने इसी पर बस नहीं किया बल्कि 18 ज़ुल-हिज्जा को बग़दाद में जश्न मनाने, बाज़ारों को रात में ईद के दिन के समान खुली रखने, ढोल-ताशे बजाने, और अमीरों तथा सिपाहियों के दरवाज़ांे पर ‘‘ईदे-ग़दीर’’ की खुशी में आग रोशन करने का आदेश दिया।
दरअसल 18 ज़ुल-हिज्जा, 35 हिज्री को अमीरूल-मोमिनीन उसमान रजि़यल्लाहु अन्हु शहीद हुए थे, जिसे शीयों के लिए ‘‘ईदे-ग़दीर’’ मनाने का दिन नियुक्त किया गया !!!
आज कल के शीया इसे इतना महत्व देते हैं कि इसे ईदुल-अज़्हा से श्रेष्ठ समझते हैं।
अगले वर्ष 10 मुहर्रम (353 हि.) को फिर पिछले वर्ष के समान हुसैन रजि़यल्लाहु अन्हु का मातम किया गया, जिसके कारण अहले सुन्नत और शीयों के बीच भयंकर लड़ाई हुई और लूट खसूट का बाज़ार गर्म हुआ।
यह कुप्रथा आज तक जारी है और हर साल 10 मुहर्रम को शीया-सुन्नी फसादात सामान्य बात बन गए हैं।
़      अन्ततः अहले सुन्नत के जन साधारण को इस बात से अवगत कराना उचित होगा कि उनके अधिकांश लोग जिन के श्रद्धालू हैं और उन्हें अपना धर्मगुरू समझते हैं अर्थात मौलाना अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी, उन्हों ने भी मुहर्रमुल-हराम के महीने में की जाने वाली बिदआत व ख़ुराफात से सख्ती के साथ रोका है और उन्हें अवैध और वर्जित घोषित किया है यहाँ तक कि उनकी ओर देखने से भी रोका है।
चुनाँचे उनका फत्वा है किः ‘‘ताजि़या आता देख कर उस से मुँह फेर लेना चाहिए। उसकी ओर देखने ही नहीं चाहिए।’’
इसी प्रकार मौलाना ने मुहर्रम को सोग का महीना समझने, उसमें सोग का प्रदर्शन करने, ताजि़या बनाने और उस पर नज़्र व नियाज़ करने, मर्सिया खानी आदि करने को हराम और अवैध बताय है। (अधिक विस्तार के लिए देखिएः  ‘‘ताजि़यादारी’’, ‘‘अहकामे शरीअत’’ तथा ‘‘इर्फाने शरीअत’’ )
आशा है कि उपरोक्त बातें पाठकों के लिए मुहर्रम के महीने से संबंधित तत्वों  की वास्तविकता को समझने और उस में की जाने वाली बिदआत व खुराफात से बचाव करने में लाभदायक सिद्ध हों गी।

हज्ज की अनिवार्यताः

हज्ज की अनिवार्यताः
अरबी भाषा में हज्ज का अर्थ होता है ‘क़सद करना, इच्छा और इरादा करना’, फिर शरीअत के प्रयोग और उर्फे-आम में अधिकतर ‘अल्लाह तआला के घर (खाना कअ्बा) का क़सद करने और वहाँ आने’ के लिए बोला जाने लगा। चुनाँचे सामान्यतः हज्ज का शब्द बोलने से इसी विशिष्ट प्रकार का क़सद ही समझा जाता है; क्योंकि यही क़सद वैध और अधिकाँश रूप से पाया जाने वाला है।
शरीअत में हज्जः विशिष्ट स्थान पर, विशिष्ट समय में, विशिष्ट व्यक्ति के द्वारा, कुछ विशिष्ट कार्यों के करने का नाम हज्ज है।
हज्ज उन पाँच स्तम्भों में से एक है जिन पर इस्लाम की नीव स्थापित है। हज्ज के अनिवार्य होने की दलील (प्रमार्ण ) कुर्आन, हदीस और इज्माअ् (उम्मत के विद्वानों की सर्व सहमति) हैः
अल्लाह तआला का फर्मान है:
¬!नत, ष्दघ्जह्म घ¨$र्¨9$रु ाड्डउ ड्डडøज7ø9$रु ृिंजठ जद्द$ेश्जळóन्न्$रु ड्डउø९े9ट्ठद्ध ॅग९ट्ठ6लन्न् 4 ृजठनत जगÿगण् ¨इट्ठ’ेù ©!$रु य्यट्टऋगî ृिंजह्म जûüड्डश्रदत्र»लध्ø9$रु ख्भिंÐीं ख्سورة آل عمرانरू97,
‘‘अल्लाह तआला ने उन लोगों पर जो उस तक पहुँचने का सामथ्र्य रखते हैं इस घर का हज्ज करना अनिवार्य कर दिया है, और जो कोई कुफ्र करे (न माने) तो अल्लाह तआला (उस से बल्कि) सर्व संसार से बेनियाज़ है।’’ (सूरत आल-इम्रानः97)
तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फर्मान है:
‘‘इस्लाम की नीव पाँच चीज़ों पर स्थापित है।’’ ख्1,
और आप ने उन में से एक स्तम्भ हज्ज का उल्लेख किया।
तथा एक दूसरी हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:
‘‘ऐ लोगो! अल्लाह तआला ने तुम्हारे ऊपर हज्ज को अनिवार्य किया है। अतः तुम हज्ज करो...।’’ ख्2,
तथा उम्मत इस बात पर सम्मत है कि समर्थ (धन्वान) व्यक्ति पर जीवन में एक बार हज्ज करना अनिवार्य है।ख्3,
उम्रा की अनिवार्यता:
अरबी भाषा में उम्रा का अर्थ ‘जि़यारत करना’’ होता हैं। और शरीअत मेंः एक विशिष्ट रूप में, एहराम, तवाफ, सई और बाल मुँडाने अथवा कटाने, फिर हलाल होजाने के साथ अल्लाह के प्राचीन घर की जि़यारत करना।
उचित (शुद्ध) बात यह है कि उम्रा उस व्यक्ति पर अनिवार्य है जिस पर हज्ज अनिवार्य है, क्योंकि उमर बिन खत्ताब रजि़यल्लाहु अन्हु की हदीस से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में साबित है कि आप ने जिब्रील से फरमाया:
‘‘... इस्लाम यह है कि तुम इस बात की गवाही दो कि अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के पैग़म्बर (ईश्तदूत) हैं, नमाज़ क़ाईम करो, ज़कात दो, हज्ज एंव उम्रा करो, जनाबत से (पत्नी से संभोग करने पर ) स्नान करो, सम्पूर्ण वुज़ू करो और रमज़ान का रोज़ा रखो।’’ख्4,
आईशा रजि़यल्लाहु अन्हा ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा: ऐ अल्लाह के पैग़म्बर ! क्या महिलाओं पर जिहाद अनिवार्य है? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उत्तर दिया:
‘‘हाँ, उन पर ऐसा जिहाद अनिवार्य है जिस में लड़ाई-भिड़ाई नहीं है: वह हज्ज और उम्रा है।’’ख्5,
अबू रज़ीन से रिवायत है कि उन्हों ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल ! मेरे बाप बहुत बूढ़े हो चुके हैं, वह हज्ज और उम्रा करने, तथा सवारी पर बैठने की ताक़त नहीं रखते हैं, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:
‘‘तो तुम अपने बाप की ओर से हज्ज और उम्रा करो।’’ ख्6,
इब्ने उमर रजि़यल्लाहु अन्हुमा फरमाते हैं: ‘‘कोई भी व्यक्ति नहीं है किन्तु उस पर हज्ज और उम्र अनिवार्य है।’’ख्7,
यही बात शुद्ध है जिस पर शरीअत के प्रमाण और तर्क स्थापित हंै कि उम्रा, हज्ज के समान फजऱ् है और जीवन में एक बार उस आदमी पर अनिवार्य है जिस पर हज्ज अनिवार्य है। यही उमर, इब्ने अब्बास, ज़ैद बिन साबित, अब्दुल्लाह बिन उमर, जाबिर बिन अब्दुल्लाह और इनके अतिरिक्त अन्य सहाबा रजि़यल्लाहु अन्हुम के कलाम (कथन) का अर्थ है।ख्8,
हज्ज और उम्रा जीवन में केवल एक बार ही अनिवार्य है; क्योंकि इब्ने अब्बास रजि़यल्लाहु अन्हुमा की हदीस में है कि अक़रअ् बिन हाबिस रजि़यल्लाहु अन्हु ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रश्न करते हुए कहा: ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या हज्ज प्रति वर्ष है या केवल एक बार? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उत्तर दिया:
‘‘बल्कि केवल एक बार है, जो व्यक्ति इस से अधिक बार करे, तो यह नफ्ल है।’’ ख्9,

ख्1,  बुखारी फत्हुलबारी के साथ 1/49, मुस्लिम 1/45
ख्2, मुस्लिम 2/975
ख्3, अल-मुग़्नी लिब्ने क़ुदामा 5/6
ख्4, दारक़ुत्नी ने रिवायत करके इसके इस्नाद को साबित और सहीह कहा है 2/283, बैहक़ी 4/350
ख्5,  इब्ने माजह, मुस्नद इमाम अहमद 6/156, अल्बानी ने सहीह इब्ने माजह 2/151 में इसे सहीह कहा है।
ख्6,  अहलुस्सुनन ने इसे रिवायत किया है और अल्लामा अल्बानी ने सहीह कहा है। देखिए: सहीहुन्नसाई 2/556, सहीह अबू दाऊद 1/341, सहीह इब्ने माजह 2/152, सहीहुत्तिर्मिज़ी 1/275
ख्7,  बुखारी फत्हुलबारी के साथ 3/597
ख्8, देखिए: अल-मुग़्नी लिब्ने क़ुदामा 5/13, शरहुल उम्दा फी बयानि मनासिकिल हज्ज वल उम्रा लिशैखिल इस्लाम इब्ने तैमियह 1/88-98, फत्हुलबारी 3/597, फतावा इब्ने तैमियह 6/256

ख्9,  अबू दाऊद, नसाई, इब्ने माजह, अहमद इत्यादि तथा अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद 1/324, सहीह नसाई 2/556, और सहीह इटने माजह 2/148 में इसे सहीह कहा है।

Saturday, October 18, 2014

G. K Question paper please give right answer


1. मालवा, गुजरात एवं महाराष्ट्र किस शासक ने पहली बार जीते?

हर्षवर्धन
स्कन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त मौर्य
विक्रमादित्य
 
बुद्ध प्रतिमा, बोधगया, बिहार
चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्य चंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया। सिकंदर के भारत आक्रमण के समय चंद्रगुप्त मौर्य की उससे पंजाब में भेंट हुई थी। किसी कारणवश रुष्ट होकर सिकंदर ने चंद्रगुप्त को क़ैद कर लेने का आदेश दिया था। पर चंद्रगुप्त उसकी चंगुल से निकल आया। इसी समय इसका संपर्क 'कौटिल्य' या 'चाणक्य' से हुआ। चाणक्य नंद राजाओं से रुष्ट था। उसने नंद राजाओं को पराजित करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने में चंद्रगुप्त मौर्य की पूरी सहायता की।



2. मराठा साम्राज्य की सबसे बहादुर महिला कौन थी?
ताराबाई
येसूबाई
सईबाई
सोयराबाई
ताराबाई, शिवाजी प्रथम के द्वितीय पुत्र राजाराम की पत्नी थी। राजाराम की मृत्यु के बाद विधवा ताराबाई ने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी तृतीय का राज्याभिषेक करवाकर मराठा साम्राज्य की वास्तविक संरक्षिका बन गई। ताराबाई एक अद्धितीय उत्साह वाली महिला थी।
3. किसने कहा है कि 'मराठों का उदय आकस्मिक अग्निकांड की भांति' हुआ?
ग्रांट डफ
आंद्रेविक
एम. जी. राणाडे
जदुनाथ सरकार



4. महात्मा बुद्ध किस क्षत्रिय कुल के थे?
शाक्य
जांत्रिक
कोसल
कोल्लि



5. भारत में पहली मुद्रण मशीन की स्थापना किसने की?
पुर्तग़ालियों ने
अंग्रेज़ो ने
फ्रांसीसियों ने
डचों ने



6. अंग्रेज़ों का सर्वाधिक विरोध किसने किया था?
राजपूतों ने
मुग़लों ने
सिक्खों ने
मराठों ने
मराठा लोगों को 'महरट्टा' या 'महरट्टी' भी कहा जाता है। भारत के वे प्रमुख लोग, जो इतिहास में 'क्षेत्र रक्षक योद्धा' और हिन्दू धर्म के समर्थक के रूप में विख्यात हैं, इनका गृहक्षेत्र आज का मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र राज्य है, जिसका पश्चिमी क्षेत्र समुद्र तट के किनारे मुंबई (भूतपूर्व बंबई) से गोवा तक और आंतरिक क्षेत्र पूर्व में लगभग 160 किमी. नागपुर तक फैला हुआ था।



7. पंजाब के राजा रणजीत सिंह की राजधानी कहाँ थी?
अमृतसर
रावलपिंडी
लाहौर
पेशावर
 
जहाँगीर का मक़बरा, लाहौर, पाकिस्तान
लाहौर पर 1768 ई. में सिक्खों का अधिकार हो गया और 1799 ई. में यह रणजीत सिंह के अधिकार में आ गया। रणजीत सिंह ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। 1799 ई. में पंजाब केसरी रणजीत सिंह के समय में लाहौर को फिर एक बार पंजाब की राजधानी बनने का गौरव मिला।
8. सर्वप्रथम रोम के साथ किन लोगों का व्यापार प्रारम्भ हुआ?
कुषाणों का
तमिल एवं चेरों का
वाकाटकों का
शकों का



9. 'नानू आसन' किसे कहा जाता था?
श्री नारायण गुरु
सी. एन. मुदालियार
इ. वी. रामास्वामी नायकर
टी. एम. नायर



10. कौन-सी घटना महाराष्ट्र में घटित हुई?
कोल विद्रोह
रम्पा विद्रोह
भील विद्रोह
संथाल विद्रोह



11. ‘सप्तरथ मन्दिरका निर्माण पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन प्रथम ने कहाँ पर करवाया था?
महाबलीपुरम
कांची
मदुरा
इनमें से कोई नहीं
महाबलीपुरम ऐतिहासिक नगर, मामल्लपुरम भी कहलाता है, यह पूर्वोत्तर तमिलनाडु राज्य, दक्षिण भारत में स्थित है। यह नगर बंगाल की खाड़ी पर चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। इसका एक अन्य प्राचीन नाम बाणपुर भी है।
12. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का मूल नाम क्या था?
मणिकर्णिका
जयश्री
पद्मा
अहल्या



13. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक कौन थे?
दादाभाई नौरोजी
बाल गंगाधर तिलक
ए.ओ.ह्यूम
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
 
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवम्बर, 1848 ई. में कलकत्ता के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक और पार्टी के सम्मानित नेता थे।
14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ इंडियन एसोसिएशन का विलय कब हुआ था?
1885 ई.
1886 ई.
1892 ई.
1895 ई.



Syed Saeed Ahmed is a prominent and inspiring motivational speaker in the Indian subcontinent, who is endowed with astounding spontaneity, incursive mind and a charismatic personality. He has conducted innumerable personality development programs all over India spanning its length and the breadth, for the student community, various stake-holders of the academic community related to the teaching-learning process, corporate sector, communities employed in highly stressed working environments and the class of pseudo-failures who are resigned to their fate. Being ranked among the top Indian motivational speakers, his workshops are quite unique and exclusive, known for their exceptional content backed by his inimitable and captivating style of delivery. His enlivening sessions are intuitive which stimulates the participants to unleash their inherent energies, fulfill their potential and create an intense desire for success and personal excellence. They are highly interactive, participative and action-oriented designed to infuse incredible dynamism and vigour into the participants, helping them to grow personally and professionally.
His successful stints with the revival of pseudo-failures especially those possessing negligible motivational coefficients including those having criminal background, has attracted intense media-attention. Over the past couple of years, articles adulating these achievements have regularly been published in prominent newspapers while his pre recorded interviews over the subject being telecasted over several News channels.

Saeed Ahmed’s specialization
Syed Saeed Ahmed specializes in the upgradation of life skills viz. positive thinking, emotion management (for overcoming grief, sorrow, fear, frustration, boredom, anger etc.), stress management, time management, self-confidence and several other critical issues that may be identified in the participants. The contents vary as per the need, time available for interaction, general profile of the participants, expectations and concern.

Saeed Ahmed’s credentials
A graduate in Library and Information Science and a post-graduate in Urdu literature from the Shivaji University - Kolhapur, Saeed Ahmed began his humble career as Assistant Librarian of a reputed College in Pune. Being in the midst of antique and contemporary books, newsletters and printed reference material of inter-disciplinary content, his early and modest profession served as a palette for carving him into a multi-faceted personality. Steadily and gradually, into him was born an actor, a director, a dramatist, a journalist, a writer, a peace activist championing the cause of international brotherhood and most recently a student, all rolled into one. Presently he is pursuing his doctorate studies on a very pertinent topic “Hindustani stage and tradition of Urdu drama in Maharashtra“ from the prestigious Pune University.
Saeed Ahmed’s roller-coaster past career
The creation of a motivational speaker of national fame can be summarized by studying three decades of Mr. Saeed Ahmed’s career which reveals how diverse and assorted circumstances in one’s life, a few of which are innate while others artificially created, has a vital role in carving out a versatile personality capable of tackling any situation with ease. Varied experiences of contentious issues and documentation of algorithms employed in tackling them goes in the making of the one and only “Saeed Ahmed”.
Being a part of an organization for a major part of his career, he has experienced what every employee commonly experiences in this competitive and materialistic world. With a glamorous career in the making, he tasted bouts of jealousy, competition, unfavorable camaraderie from colleagues, seniors and even higher authorities, almost all of which were responded with patience, endurance and fortified will power. In fact these served as an oven to harden his soft clay and teach him eloquent interpersonal relations, psychological counseling and stress therapy without charging any fee.


Saeed Ahmed as an actor, director and writer
Mr. Saeed Ahmed had the opportunity to be associated with prestigious Indian theatres such as Prithvi (Mumbai), Nehru Centre (Mumbai), Rangshankara (Bangalore), Hamdard University, Delhi , Balgandharva (Pune), Punjab Naat-shala (Amritsar) and a host of other prestigious international theatres in Lahore, Pakistan. Performing extensively for an Indian audience with these theatre groups, three of his performances have received international acclaim when they were staged during the “World Performing and Visual Arts Festival” in Lahore, consecutively for three years in a row (2004, 2005, 2006). These were “Jis Lahore Naee Dekhya” by Dr. Asghar Wajahat, “Naquab" by Rafi Peerzada, “Portrait" by Ratnakar Matkari. Earlier a majority of plays which he has directed and performed all over the country namely "Dhilli Khaat" by Naseem Mannan, "Portrait" by Ratnakar Matkari, , "Najat" by Abdul Wahab Lunje, "Nafrat ke Rang" by Kazi Mushtaque Ahmed, and some others which he has written himself such as "Sir Sayyed Ahmed Khan (Founder of Aligarh Muslim University)”, "Toba Tek Singh" drama based on Saadat Hassan Monto, "Kahain Hai", "Dilli Ka Thagh",  have drawn critical appreciation and widespread admiration from all over the national audience. His debut in acting began as a character artiste in a serial entitled “Sunita” telecasted over the “Doordarshan” National TV Channel. A majority of his plays have drawn critical appreciation from national and international audience. One of the most popular dramas written and directed by Saeed Ahmed had been “Sare Jahan Se Accha” which completed over forty performances in the state of Maharashtra itself. An audio presentation in the form of an audio cassette then, audio CDs later and presently in the process of a documentary in the making, on the life of "Sir Sayyed Ahmed Khan" conceived, written and voiced by Mr. Saeed Ahmed was widely acknowledged from the adherents of this great personality in our country and spread over the entire globe. A book entitled “Sare Jahan Se Accha” was also authored by Mr. Saeed Ahmed which was published by Haji Ghulam Mohammed Azam Educational Trust, Pune.
Besides these, he has also offered his expertise in the creation of several documentaries for the institutions and cable networks based in Pune, many of which were sponsored by Maulana Abul Kalam Azad Foundation, New Delhi, Haji Ghulam Mohammed Azam Trust, Pune and its affiliate Maharashtra Cosmopolitan Educational Society.